Sunday 3 January 2016

झुग्गी नही वो मेरा घर था भाईजान

शकूर बस्ती से कुछ दूर पहले मिट्टी में खेल रहे एक दस साल के बच्चे इमरान से जब मैनें पुछा कि रेलवे द्वारा जो झुग्गियां गिराई गई है, वहां किधर से जाऊँ? इस पर इमरान ने कहा- झुग्गी नही वो मेरा घर था भाईजान। दरअसल जो हमारे-आपके लिए झुग्गी है, इमरान जैसे लोगों के लिए वही घर है। 12 दिसंबर को रेलवे ने शकूर बस्ती में अपने ज़मीन पर रह रहे लोगों के घर (झुग्गियों) को अतिक्रमण हटाने के नाम पर उजाड़ दिया। झुग्गियां गिरने के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल शकूर बस्ती गए और लोगों को पुनर्वास का आश्वासन देकर चले आये। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी भी हमदर्दी जताने के लिए शकूर बस्ती गए।
झुग्गियां गिराये जाने के बाद शकूर बस्ती का राजनीति का अखाड़ा बन गया था। टीवी पर बस्ती के लोगों का हालात देखकर मेरी इच्छा हुई कि मैं वहां जाकर लोगों के दर्द को सुनकर उनके बारें में कुछ लिखुँ। समय निकालकर 15 दिसंबर को मैं शाम के वक्त किसी तरह शकूर बस्ती पहुंचा। वहां कुछ लोग सीमित संसाधन में लकड़ी को आपस में बांधकर झुग्गियां खड़ी करने की कोशिश में लगे थे।
बस्ती में मेरी मुलाकात मोहम्मद नईम और मोहम्मद आलमगीर से हुई जो शकूर बस्ती में तकरीबन पिछले 10 सालों से रह रहे है। नईम और आलमगीर दोनों बिहार के मधेपुरा जिले के रहने वाले है। नईम ट्रक चलाते है और आलमगीर ट्रेन से सीमेन्ट उतारने का काम करते है। नईम की आमदनी नौ हजार रूपये प्रतिमाह और आलमगीर की आमदनी छह हजार रूपये प्रतिमाह है। दिल्ली जैसे शहर में इतने कम आमदनी में भी ये लोग किसी तरह गुजारा कर रहे है। मैनें उन दोनों लोगों से पुछा कि आप लोग रेलवे की ज़मीन पर झुग्गी बनाकर क्यों रह रहे है? इस पर नईम और आलम ने बताया कि वे किराये का मकान लेकर नहीं रह सकते और खाने के लिए भी तो पैसे चाहिए।   
नईम और आलमगीर से बात करते देखकर मोहम्मद शाहिद मेरे पास आया और वह भी सबकुछ बताने लगा। शाहिद ट्रक ड्राईवर है और वह भी बिहार के मधेपुरा का रहने वाला है। शाहिद ने बताया कि सरकार की तरफ से जो कम्बल यहा बांटे जा रहे है वह सबको नही मिल पा रहा है। एक-ही घर के लोग तीन-चार कम्बल ले ले रहे है और कुछ ऐसे भी लोग है जिन्हें एक भी कम्बल नही मिल पा रहा है।
 मैं शाहिद से बात करने के बाद वहां से निकलना चाह रहा था लेकिन शाहिद ने तो चाय पिलाने की जिद्द पकड़ ली। उसके बार-बार कहने पर मैं चाय पीने के लिए राजी हो गया। उसने मुझे चाय पिलाने के लिए वहीं बगल में इब्राहिम चाचा की दुकान पर ले गया। इब्राहिम चाचा की उम्र तकरीबन 65 साल रही होगी। उनकी दुकान भी रेलवे ने तोड़ दिया था। इब्राहिम चाचा ने बताया कि उनके पास शकूर बस्ती के पते का वोटर आईडी कार्ड, राशन कार्ड ओर आधार कार्ड भी है ओर वे बीते 25 साल से यहां रह रहे है। उनका कहना था कि सरकार कही और गुजर-बसर करने को दे तो हम यहां से चले जायेगें, वैसे हम इस बुढ़ापे में कहां जाएगे।

      सूर्यास्त हो चुका था, अब अंधेरा छा रहा था। चाय पीने के बाद मैं यह सोचते हुए निकल पड़ा कि देश को आज़ाद हुए 68 साल हो गए लेकिन आज भी देश में लोग झुग्गियों में रहने को विवश है। इसके लिए कौन जिम्मेदार है- हुक्मरान या आम जनता।